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Papa wrote this poem for me on my arrival. अथर्व, तुम्हारा स्वागत है अथर्व, तुम्हारा स्वागत है, आओ आकर जग को अपनी खुशबू से महकाओ तुम, मानवता के बाग़ में खिलते हुए पुष्प बन जाओ तुम, चित्र बनाओ बदल पर जीवन की सुन्दरताई के, रंग भरो कोमलता के, दृढ़ता के औ' सच्चाई के, सदा प्रतिष्ठा जनित तुम्हारी कीर्ति जगत में व्याप्त रहे, जो देवों को भी दुर्लभ स्थान वो तुमको प्राप्त रहे, हंसो और मुस्काओ खिलकर, खुलकर सबका मान करो, कभी घृणा न करो किसी से प्रेम, पुण्य, तप दान करो, देखो पलक बिछाए बैठी दुनिया तुमसे बोल रही, अथर्व तुम्हारा स्वागत है, न तो मन मन में पीड़ा थी न तन तन में तबाही थी, ये दुनिया वैसी तो न है जैसी हमनें चाही थी, अभी बहुत से पोखर ताल शिकारे सूखे बैठे हैं, अभी बहुत से सूरज चाँद सितारे भूखे बैठे हैं, अभी बहुत सी नदियों में ज़हरीली नफरत बहती है, रहती है खामोश मगर ये धरा बहुत कुछ कहती है, देखो तुम भी देखो कट्टरता की शाखा बढ़ी हुयी, और तुम्हारे पिता की पीढी हाथ झाड़ कर खड़ी हुयी, शब्दों की थाली से तुमको तिलक लगाने को आतुर, अथर्व तुम्हारा स्वागत है, रहो कहीं भी किसी देश में कोई भी भाषा बोलो ...
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